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शान्ति की खोज

एक बार एक शिष्य गुरु जी से मिलने गया और वहां जाकर गुरुजी के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखी और बोला,"गुरुजी मैं सोचता हूँ कि घर बार छोड़कर सन्यास धारण कर लूं। कभी सोचता हूँ कि जंगलों में भाग जाऊं। कभी सोचता हूँ कि मैं मन की शांति के लिए किसी आश्रम में चला जाऊं। परंतु यह समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं। मेरी जिज्ञासा को शांत कीजिए।
गुरुजी ने पूछा,"तुम यह सब क्यों करना चाहते हो?
 शिष्य बोला,"गुरु जी, मेरे को तीन चीजें चाहिए।
पहला सुख निरोगी काया। मेरे को अपने शरीर का स्वास्थ्य अर्थार्थ मेरा शरीर निरोगी रहना चाहिए।
 दूसरा मेरा बुढ़ापा सुरक्षित होना चाहिए मैं बिना बीमारी के बुढ़ापा काटना चाहता हूं और तीसरा मेरी खुशी कभी गायब नहीं होनी चाहिए।

गुरुजी मुस्कुराए और बोले,"शरीर को निरोगी रखने के लिए परमात्मा ने केवल दो चीजें इंसान को दी हैं कर्म और पुरुषार्थ वह तो तुम्हें करने पड़ेंगे परंतु जो भी रिजल्ट तुम्हारे सामने आता है अगर उसे खुशी से स्वीकार नहीं किया तो दुखी होकर करना पड़ेगा। अगर दुखी होकर स्वीकार किया तो शरीर निरोगी रह ही नहीं सकता।
दूसरा प्रश्न तुम्हें बुढ़ापा सुरक्षित चाहिए जब तक संपूर्ण समर्पित नहीं होगे अपने को ढीला नहीं छोड़ोगे। तो रिजल्ट को स्वीकार नहीं कर पाओगे। जैसे-जैसे रिजल्ट को स्वीकार करते जाओगे तो तुम्हारा शरीर हल्का हो जाएगा और हल्के रहने वाले व्यक्ति को बीमारी नहीं पकड़ती। तो उसका बुढ़ापा सुरक्षित हो जाता है।
तीसरा, सदा खुश रहना चाहते हो। प्रकृति का यह नियम है जो दोगे वह मिलेगा, सुख बांटोगे तो सुख मिलेगा। खुशी बांटोगे तो खुशी मिलेगी। रिजल्ट को स्वीकार करते जाओ और दूसरों के साथ खुशी बांटना सीखो जो दूसरों को जो देता है वही उसको मिलता है तो खुशी बांटना सीखो। तुम सदैव खुश ही रहोगे। 
इसलिए तुम्हें कहीं पर भी जाने की आवश्यकता नहीं है जहां पर हो जिस हाल में हो उस हाल में तुम खुश रह सकते हो। बस रिजल्ट को स्वीकार करो और खुशी बांटते रहो तो तुम सदैव वर्तमान का सुख ले सकते हो।

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