नवीनतम

कच्चे पक्के साधक

एक बार एक गुरूजी अपने शिष्यों को भक्ति का उपदेश देते हुए समझा रहे थे कि बेटा पक्के साधक बनो, कच्चे साधक ना बने रहो । कच्चे पक्के साधक की बात सुनकर एक नये शिष्य के मन में सवाल पैदा हुआ !

उसने पूछ ही लिया “ गुरूजी ये पक्के साधक कैसे बनते हैं ?”

गुरूजी मुस्कुराये और बोले, बेटा एक गाँव में एक हलवाई रहता था । हलवाई हर रोज़ कई तरह की मिठाइयाँ बनाता था।

एक दिन हलवाई की दुकान पर एक पति पत्नी आये और उनके साथ उनका एक छोटा सा बच्चा भी था, जो बहुत ही चंचल था।
उसके पिता ने हलवाई को हलवा बनाने का आदेश दिया !
वह दोनों तो प्रतीक्षा करने लगे, लेकिन वह बच्चा बार – बार आकर हलवाई से पूछता* –
“ हलवा बन गया क्या ?” हलवाई कहता – “ अभी कच्चा है, थोड़ी देर और लगेगी ।” वह थोड़ी देर प्रतीक्षा करता और फिर आकर हलवाई को आकर पूछता – "हलवा बन गया क्या ?” हलवाई कहता – “ अभी कच्चा है, थोड़ी देर और लगेगी ।” एक बार, दो बार, तीन बार,  बार – बार उसके ऐसा  पूछने से हलवाई थोड़ा चिढ़ गया !
  उसने एक प्लेट उठाई और उसमें कच्चा हलवा रखा और बोला – “ ले खा ले”
बच्चे ने खाया, तो बोला – “ ये हलवा तो अच्छा नहीं है”।

हलवाई बोला “ अगर अच्छा हलवा खाना है तो चुपचाप जाकर वहाँ बैठ जाओ और प्रतीक्षा करो ।” इस बार बच्चा चुपचाप जाकर बैठ गया I

जब हलवा पककर तैयार हो गया तो हलवाई ने थाली में सजा दिया और उन  की टेबल पर परोस दिया ।
इस बार जब उस बच्चे ने हलवा खाया तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगा।

बच्चे ने हलवाई से पूछा – “ हलवाई काका ! अभी थोड़ी देर पहले जब मैंने इसे खाया था, तब तो यह बहुत ख़राब लगा था परंतु अब इतना स्वादिष्ट कैसे बन गया ?”

तब हलवाई ने उसे प्रेम से समझाते हुए कहा – “ बच्चे जब तू ज़िद कर रहा था, तब यह हलवा कच्चा था और अब यह पक गया है और पकने के बाद वह स्वादिष्ट और पोष्टिक हो जाता है ।”
     
अब गुरूजी अपने शिष्य से बोले  “ बेटा कच्चे और पक्के साधक का फर्क समझ में आया कि नहीं ?”
शिष्य हाथ जोड़ कर बोला गुरू जी “ हलवे के कच्चे और पक्के होने की बात तो समझ आ गई, लेकिन एक साधक के साथ यह कैसे होता है ?”

गुरूजी बोले – बेटा, जिस तरह हलवाई हलवे को आग की तपिश से धीरे धीरे पकाता है उसी तरह साधक को भी स्वयं को निरन्तर साधना से पकाना पड़ता है । जिस तरह हलवे में सभी आवश्यक चीज़ें डालने के बाद भी जब तक हलवा कच्चा है, तो उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता !

उसी तरह एक सेवक भी चाहे कितना ही ज्ञान जुटा ले, कर्मकाण्ड कर ले जब तक सिमरन और भजन की अग्नि में नहीं तपता, तब तक वह कच्चा ही रहता है।

सार :-
ज्ञान सुनना और सुनाना बहुत सहज है लरन्तु धारण करना बहुत मुश्किल है।
केवल दो बातें धारण करनी हैं, न किसी को दुःख देना है और न ही किसी से दुःख लेना है। सबको दुआएं देनी है और सबसे दुआएं लेनी हैं।

सबका मॉलिक एक है

कोई टिप्पणी नहीं