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कुछ दिन के रईस

हर नोकरी शुदा आदमी भी महीने में कुछ दिन को अमीर हो जाता है, जब उसकी तनख्वाह मिलती है। तब अमीरी की हद होती है और उसके बाद गरीबी की हद।
ऐसा ही कुछ बताती मेरी निम्न पंक्तियाँ।

हम भी महीने में कुछ दिन अमीर हो जाते हैं
और बाकी दिनों का हाल देख दुसरे रो जाते हैं
अब तो कढ़ाई पनीर दाल मखनी है
दो दिन बाद सूखी रोटियाँ ही चखनी है
अब तो यारों के संग महफ़िलें जमाते हैं
बाद में बीवी के आगे मूक दर्शक बन जाते हैं
अभी लगता है सारा ज़माना हाथ में है
फिर पता चलता है की ये जीना ही ख़ाक में है
अब तो दारु पी उपदेश सुनाते है
फिर पूरे महीने घर उपदेश सुनने जाते है
बस थोड़े दिन बाद गरीबियत शुरू हो जायेगी
गहराई जिसकी फटी खाल बताएगी
अब लुटा देते हैं खुदपर थोडा जो पूरे महीने कमाते हैं
फिर तो घर की जरूरते ही पूरी करते रह जाते है
माँ की दवाई पिता का चश्मा याद रहता है
बीवी का श्रृंगार बच्चों का तिलस्मा याद रहता है
ये तो हर पिता पति बेटे की कहानी है
बदल के क्या फायदा हर महीने यही सुनानी है
तो पूरे महीने जो पिसेगा उसे कुछ दिन तो जीने दो
यारों संग जैसे जी चाहे पीने दो
-अनिरुद्ध शर्मा

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