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★【परमात्म शिक्षाएं】★

1)
कितनी सुंदर बात है कि...,
जिस भगवान को हम मूर्तियों के रूप में पूजते हैं, तो उस मूर्ति को स्थापन करने से पूर्व हम उस स्थान को साफ-सुथरा करते हैं। तो ये तो साक्षात् भगवान को हमें बिठाना है अपने भीतर, अपने दिल में..., तो कितना ना हमारा यह दिल और हमारा मन, स्वच्छ और शुद्ध होना चाहिए...! जब हमारा रोम-रोम निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण भाव से भरपूर हो जायेगा, तब मेरे रोम-रोम में परमात्मा की याद समा जायेगी ... और तब ही खुद ईश्वर इस दिल में आके विराजमान होगा।


2)
कोई भी कार्य को शुरू करने से पहले, वो कार्य परमात्मा पिता को समर्पण कर दो ... और कार्य के ख़त्म होने पर, कार्य का फल भी परमात्मा को सौंप दो..., फिर आपके हर कार्य का ज़िम्मेवार परमपिता परमात्मा (शिवजी)हो जायेंगे..। और जिस कार्य का ज़िम्मेवार स्वयं भगवान होगा, तो उस कार्य में आप बच्चे विजयी ना बनो - यह तो असम्भव है...!


3)
मन का मौन अर्थात् केवल समर्थ संकल्प ... कुछ भी बात आये, कोई भी परिस्थिति आये..., आप उसी समय अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाओ। फिर परिस्थिति भी शान्त हो जाएगी और आपके आस-पास का वातावरण भी...।


4)
‘‘हिम्मते बच्चे, मददे परमात्मा’’ - अब यह हिम्मत भी कौन-सी चाहिए होती है...?
मनसा-वाचा-कर्मणा, सबको सुख देने की।

5)
अब समय अनुसार समर्पण भाव को बढ़ाते चले जाओ। जितना-जितना समर्पण भाव को बढ़ाते चले जाओगे ... उतना ही मैं और मेरे-पन से दूर अर्थात् वैराग्य वृत्ति अर्थात् एकरस स्थिति अर्थात् निन्दा-स्तुति ... सुख-दुःख ... मान-अपमान - सबमें एक समान स्थिति हो जायेगी।

जितना-जितना समर्पण भाव बढ़ता जायेगा, उतना ही अशरीरी स्थिति में स्थित होना आसान हो जाएगा ... इच्छाओं का अन्त हो जायेगा ... सन्तुष्टता, खुशी और उमंग-उत्साह बना रहेगा, जिससे आप हल्के रह उड़ते रहोगे और कर्म करते भी कर्म से न्यारे रह, कर्मातीत अवस्था हो जायेगी।

इस स्थिति को ही परमात्म प्रेम की स्थिति कहा जाता है। समर्पणता जो है, वो ही उड़ती कला की चाबी है...।

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