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समाज सेवा

 

आज भी मेट्रो के रुकते ही वो लड़का दौड़कर आया और एक सीट पर बैठ गया ।

ये उसका रोज का नियम था ,वर्माजी उसी मेट्रो से रोज़ ऑफिस जाते थे और उसकी इस  हरकत को देखते थे।
हैरानी की बात तो यह थी कि कुछ ही मिनटों में वो अपनी सीट कभी किसी बच्चे वाली महिला को दे देता या कभी किसी बुर्जुग को! और खुद मुसकुराता हुआ खड़ा रहता!

वर्मा जी को बहुत अजीब लगता कि ,सीट के लिए इतनी जद्दोजहद करके  फिर दूसरे तीसरे को दे देना !!

आखिर एक दिन उनसे रहा न गया, उन्होंने उस नवयुवक से पूछ ही लिया,"क्यों भाई  तुम रोज़ इस तरह सीट लपकते हो और खुद कभी बैठते नही!! तो फिर इतनी मशक्कत क्यों?

लड़का बोला कि,"बहुत सारे लोग समाज सेवा करते हैं और मैं अभी  पढ़ रहा हु। मेरी माताजी कहती हैं कि जो दूसरों की मदद करते हैं तो उनकी मदद स्वयं भगवान् करते हैं और ऐसा करने से मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है।

वर्माजी अचरज से बोले!,"इसमें कैसे समाज सेवा हुई?"

क्यों? अगर मैं ये ये सीट पर कब्जा न करू तो कोई  दूसरा करेगा ! और फिर क्या ग्यारंटी की वो किसी जरूरतमंद को अपनी सीट ऑफर करेगा! इसलिए मैं सीट उन लोगो के लिए लेता हूं जिन्हें सच मे जरूरत है , पर वो मेरी तरह दौड़कर सीट नही ले
पाते!बहुत देर खड़े नही रह सकते।
एक बच्चे वाली माँ, पिता समान बुजुर्ग आदि को ,पूरे रास्ते बाँटता रहता हूँ जब तक मेरी मंजिल नही आ जाती और रोज़ मुझे संतुष्टि हो जाती है कि, मैंने कुछ समाज सेवा कर ली।

सार :-
दूसरों की मदद करना , समाज की सेवा करना, इसमें बहुत ख़ुशी समाई हुई है। आप स्वयं कर के देख लें मालूम पड़ जाएगा।

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